जानिए सम्राट विक्रमादित्य की वीर गाथा के बारे में और विक्रम संवत की शुरुवात कैसे हुयी

 वीर विक्रमादित्य ने शकों को उनके गढ़ अरब में भी करारी मात दी। इसी सम्राट विक्रमादित्य के नाम पर भारत में विक्रमी संवत प्रचलित हुआ। सम्राट पृथ्वीराज के शासनकाल तक इसी संवत के अनुसार कार्य चला। इसके बाद भारत में मुगलों के शासनकाल के दौरान सरकारी क्षेत्र में हिजरी सन चलता रहा। इसे भाग्य की विडंबना कहें अथवा स्वतंत्र भारत के कुछ नेताओं की अकृतज्ञता कि सरकार ने शक संवत को स्वीकार कर लिया, लेकिन सम्राट विक्रमादित्य के नाम से प्रचलित संवत को कहीं स्थान न दिया। माना जाता है कि विक्रमी संवत से भी पहले लगभग सड़सठ सौ ई.पू. हिंदूओं का प्राचीन सप्तर्षि संवत अस्तित्व में आ चुका था। हालांकि इसकी विधिवत शुरूआत लगभग इक्कतीस सौ ई. पू. मानी जाती है। इसके अलावा इसी दौर में भगवान श्री कृष्ण के जन्म से कृष्ण कैलेंडर की शुरुआत भी बतायी जाती है। तत्पश्चात कलियुगी संवत की शुरुआत भी हुई।

आज के इस भाग में हम  करेंगे विक्रम सम्वत की महान चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमदित्य के  शौर्य से जुडी कुछ गाथाओ की - 

माना जाता है कि विक्रमी संवत से भी पहले लगभग सड़सठ सौ ई.पू. हिंदूओं का प्राचीन सप्तर्षि संवत अस्तित्व में आ चुका था। हालांकि इसकी विधिवत शुरूआत लगभग इक्कतीस सौ ई. पू. मानी जाती है। इसके अलावा इसी दौर में भगवान श्री कृष्ण के जन्म से कृष्ण कैलेंडर की शुरुआत भी बतायी जाती है। तत्पश्चात कलियुगी संवत की शुरुआत भी हुई।

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विक्रम संवत को नव संवत्सर भी कहा जाता है। संवत्सर पांच तरह का होता है जिसमें सौर, चंद्र, नक्षत्र, सावन और अधिमास आते हैं। विक्रम संवत में यह सब शामिल रहते हैं। हालांकि विक्रमी संवत के उद्भव को लेकर विद्वान एकमत नहीं हैं लेकिन अधितर 57 ईसवीं पूर्व ही इसकी शुरुआत मानते हैं।

दो हजार वर्ष पहले शकों ने सौराष्ट्र और पंजाब को रौंदते हुए अवंती पर आक्रमण किया तथा विजय प्राप्त की। विक्रमादित्य ने राष्ट्रीय शक्तियों को एक सूत्र में पिरोया और शक्तिशाली मोर्चा खड़ा करके ईसा पूर्व 57 में शकों पर भीषण आक्रमण कर विजय प्राप्त की। थोड़े समय में ही इन्होंने कोंकण, सौराष्ट्र, गुजरात और सिंध भाग के प्रदेशों को भी शकों से मुक्त करवा लिया।

 वीर विक्रमादित्य ने शकों को उनके गढ़ अरब में भी करारी मात दी। इसी सम्राट विक्रमादित्य के नाम पर भारत में विक्रमी संवत प्रचलित हुआ। सम्राट पृथ्वीराज के शासनकाल तक इसी संवत के अनुसार कार्य चला। इसके बाद भारत में मुगलों के शासनकाल के दौरान सरकारी क्षेत्र में हिजरी सन चलता रहा। इसे भाग्य की विडंबना कहें अथवा स्वतंत्र भारत के कुछ नेताओं की अकृतज्ञता कि सरकार ने शक संवत को स्वीकार कर लिया, लेकिन सम्राट विक्रमादित्य के नाम से प्रचलित संवत को कहीं स्थान न दिया।

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उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य के साथ उनके नवरत्नों को जानने की जिज्ञासा सहज स्वाभाविक है। इन नवरत्नों में उच्च कोटि के विद्वान, श्रेष्ठ कवि, गणित के प्रकांड विद्वान और विज्ञान के विशेषज्ञ आदि सम्मिलित थे। इन नवरत्नों की योग्यताओं  का गुणगान संपूर्ण भारतवर्ष में हुआ है। मध्य प्रदेश के उज्जैन महानगर के महाकाल मंदिर के पास ही सम्राट विक्रमादित्य टीला है। यहां पर विक्रमादित्य के नवरत्नों की मूर्तियां विक्रमादित्य संग्रहालय में स्थापित की गई है।

 सौर वर्ष के महीने 12 राशियों के नाम पर हैं इसका आरंभ मेष राशि में सूर्य की संक्राति से होता है। यह 365 दिनों का होता है। वहीं चंद्र वर्ष के मास चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ आदि हैं इन महीनों का नाम नक्षत्रों के आधार पर रखा गया है। चंद्र वर्ष 354 दिनों का होता है इसी कारण जो बढ़े हुए दस दिन होते हैं वे चंद्रमास ही माने जाते हैं लेकिन दिन बढ़ने के कारण इन्हें अधिमास कहा जाता है। नक्षत्रों की संख्या 27 है इस प्रकार एक नक्षत्र मास भी 27 दिन का ही माना जाता है। वहीं सावन वर्ष की अवधि लगभग 360 दिन की होती है। इसमें हर महीना 30 दिन का होता है।

भले ही आज अंग्रेजी कैलेंडर का प्रचलन बहुत अधिक हो गया हो, लेकिन उससे भारतीय कलैंडर की महता कम नहीं हुई है। आज भी हम अपने व्रत-त्यौहार, महापुरुषों की जयंती-पुण्यतिथि, विवाह व अन्य शुभ कार्यों को करने के मुहूर्त आदि भारतीय कलैंडर के अनुसार ही देखते हैं।

भारतीय सांस्कृतिक जीवन का विक्रमी संवत से गहरा नाता है। इस दिन लोग पूजापाठ करते हैं और तीर्थ स्थानों पर जाते हैं। लोग पवित्र नदियों में स्नान करते हैं।

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मांस-मदिरा का सेवन करने वाले लोग इस दिन इन तामसी पदार्था से दूर रहते हैं, पर विदेशी संस्कृति के प्रतीक और गुलामी की देन विदेशी नव वर्ष के आगमन से घंटों पूर्व ही मांस मदिरा का प्रयोग, शील हीन अश्लील कार्यक्रमों का रसपान तथा अन्य बहुत कुछ ऐसा प्रारंभ हो जाता है जिससे अपने देश की संस्कृति का रिश्ता नहीं है। विक्रमी संवत के स्मरण मात्र से ही विक्रमादित्य और उनके विजय अभियान की याद ताजा होती है, भारतीयों का मस्तक गर्व से ऊंचा होता है जबकि ईसवी सन के साथ ही गुलामी द्वारा दिए गए अनेक जख्म हरे होने लगते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को जब किसी ने पहली जनवरी को नव वर्ष की बधाई दी तो उन्होंने उत्तर दिया था- किस बात की बधाई? मेरे देश और देश के सम्मान का तो इस नव वर्ष से कोई संबंध नहीं। यही हम लोगों को भी समझना होगा।

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बदलिए अंग्रेजी कैलेंडर को लेकिन संस्कारो को ना बदलिए  देखिए खुद को,  पहचानिए अपने आपको,

हम भारतीय हैं, विश्व गुरु भारत के वासी कुछ शतब्दियों को छोड़ दे तो पूरी दुनिया हमारे पीछे चली है और आने वाले समय में एक बार फिर से हमारे पीछे होगी।

चुनाव आपका है!

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