जानिए क्यों पूरी ताकत झोंकने के बाद भी कर्नाटक में हारी बीजेपी
अगले दो सालों में लोकसभा के साथ-साथ 13 बड़े राज्यों के चुनाव होने हैं। इनमें कई दक्षिण के राज्य भी हैं. इसलिए भाजपा के लिए कर्नाटक की हार को बड़ा झटका माना जा रहा है. वहीं, मुश्किलों में घिरी कांग्रेस के लिए जीवनदान साबित हुई. पिछले एक साल के अंदर ये दूसरा राज्य है, जिसकी सत्ता भाजपा के हाथ से कांग्रेस ने छीन ली. इसका बड़ा सियाासी मतलब निकाला जा रहा है. खासतौर पर भाजपा के लिए बड़ी चिंता की बात है.
हिमाचल प्रदेश के बाद कर्नाटक में भी भाजपा को बड़ा झटका लगा है. पिछले एक साल के अंदर ये दूसरा राज्य है, जिसकी सत्ता भाजपा के हाथ से कांग्रेस ने छीन ली. इसका बड़ा सियाासी मतलब निकाला जा रहा है. खासतौर पर भाजपा के लिए बड़ी चिंता की बात है.
कर्नाटक समेत देश के लिए और उससे भी अहम है कांग्रेस के लिए.क्योंकि एक बाद एक राज्य खोने के बाद कांग्रेस को एक ऐसी बड़ी जीत की जरूरत थी जहां से हार के जख्म कम हो सके. साथ ही कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में नया जोश आ सके.
इस साल कर्नाटक के बाद अब पांच अन्य राज्यों में चुनाव होने हैं. इनमें राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मिजोरम और तेलंगाना शामिल है. इसके अलावा अगले साल यानी 2024 में लोकसभा चुनाव होने हैं. इसके बाद सात राज्यों में चुनाव होने हैं. कुल मिलाकर अगले दो सालों में लोकसभा के साथ-साथ 13 बड़े राज्यों के चुनाव होने हैं। इनमें कई दक्षिण के राज्य भी हैं. इसलिए भाजपा के लिए कर्नाटक की हार को बड़ा झटका माना जा रहा है. वहीं, मुश्किलों में घिरी कांग्रेस के लिए जीवनदान साबित हुई.
कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे कांग्रेस के लिए जहां संजीवनी से कम नहीं है, जो पार्टी में जान और ऊर्जा डालने का काम करेगी. वहीं, बीजेपी के लिए चुनाव में हार किसी सदमे जैसा है. कर्नाटक में कांग्रेस की जीत राज्य की उस 38 साल की परंपरा का भी दोहराव है, जिसमें 1985 के बाद कोई सरकार रिपीट नहीं हुई है.
अब बीजेपी की करारी हार के बाद चर्चा ये हो रही है कि आखिर इस हार की वजह क्या थी. सियासी गलियारों में सीएम फेस का मजबूत न होना इस हार की एक मजबूत वजह बताई जा रही है. जानकारों कि मानें तो येदियुरप्पा की जगह बसवराज बोम्मई को बीजेपी ने भले ही मुख्यमंत्री बनाया हो, लेकिन सीएम की कुर्सी पर रहते हुए भी बोम्मई का कोई खास प्रभाव नहीं नजर आया. वहीं, कांग्रेस के पास डीके शिवकुमार और सिद्धारमैया जैसे मजबूत चेहरे थे, जिसकी वजह से कांग्रेस का विजयी रथ दक्षिण में बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है.
बीजेपी ने बीएस येदियुरप्पा को संसदीय बोर्ड का सदस्य बनाया. कर्नाटक में उनसे बड़े पैमाने पर चुनाव प्रचार कराया, लेकिन जिस तरह से उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाया गया, उससे लिंगायत वोटों की नाराजगी बढ़ी. ये नाराजगी चुनाव में भारी पड़ी. मतदाताओं में यह संदेश गया कि येदियुरप्पा पार्टी की अंदरूनी राजनीति में अपने विरोधी और ताकतवर नेता बीएल संतोष के शिकार बने. लिंगायत बहुल सीटों पर कांग्रेस की बड़ी जीत बीजेपी के लिए खतरे की घंटी है.
लिंगायत, दलित, आदिवासी, ओबीसी और वोक्कालिंगा समुदाय से बीजेपी को बड़ी उम्मीदें थी, लेकिन ये वोट बैंक भी बीजेपी के हाथ से इस तरह फिसला कि बीजेपी कुछ समझ ही नहीं पाई. जानकारों कि मानें तो लिंगायत से बीजेपी को बड़ी आशा थी लेकिन हाथ में निराशा लगी.ध्रुवीकरण का दांव भी कर्नाटक में काम नहीं आया.
चुनाव के दौरान ही नहीं, बल्कि इससे काफी पहले से भाजपा में आंतरिक कलह की खबरें सामने आ चुकी थीं. कर्नाटक भाजपा में कई धड़े बन चुके थे. एक मुख्यमंत्री पद से हटाए गए बीएस येदियुरप्पा का गुट था, दूसरा मौजूदा मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई का, तीसरा भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव (संगठन) बीएल संतोष और चौथा भाजपा प्रदेश नलिन कुमार कटील का था. एक पांचवा फ्रंट भी था, जो पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव सीटी रवि का था. इन सभी फ्रंट में भाजपा के कार्यकर्ता पिस रहे थे। सभी के अंदर पॉवर गेम की लड़ाई चल रही थी.
इस वक्त दक्षिण बनाम उत्तर की बड़ी लड़ाई चल रही है। भाजपा राष्ट्रीय पार्टी है और मौजूदा समय केंद्र की सत्ता में है. ऐसे में भाजपा नेताओं ने हिंदी बनाम कन्नड़ की लड़ाई में मौन रखना ठीक समझा. वहीं, कांग्रेस के स्थानीय नेताओं ने मुखर होकर इस मुद्दे को कर्नाटक में उठाया. नंदिनी दूध का मसला इसका उदाहरण है। कांग्रेस ने नंदिनी दूध के मुद्दे को खूब प्रचारित किया. एक तरह से ये साबित करने की कोशिश की है कि भाजपा उत्तर भारतीय कंपनियों को बढ़ावा दे रही है, जबकि दक्षिण के लोगों को किनारे लगाया जा रहा है.
कर्नाटक की जनता बीजेपी को भ्रष्टाचार मामले में भी बड़ी पनिसमेंट दी है. वहीं, कांग्रेस ने इस मुद्दे पर घेराबंदी करने के लिए शुरू से बड़ा अभियान चलाया था, जिसका नाम था '40 फीसदी पे-सीएम करप्शन'.ये एजेंडा कांग्रेस की जीत में काफी मददगार साबित हुआ.करप्शन के मुद्दे पर ही एस ईश्वरप्पा को मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा तो एक बीजेपी विधायक को जेल भी जाना पड़ा.
कर्नाटक चुनाव में भाजपा ने चार प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण खत्म करके लिंगायत और अन्य वर्ग में बांट दिया. पार्टी को इससे फायदे की उम्मीद थी, लेकिन ऐन वक्त में कांग्रेस ने बड़ा पासा फेंक दिया. कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में आरक्षण का दायरा 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 75 फीसदी करने का एलान कर दिया. इसने भाजपा के हिंदुत्व को पीछे छोड़ दिया। आरक्षण के वादे ने कांग्रेस को बड़ा फायदा पहुंचाया. लिंगायत वोटर्स से लेकर ओबीसी और दलित वोटर्स तक ने कांग्रेस का साथ दिया.