समलैंगिक शादी: केंद्र की दलीलों के बाद पीछे हट रहा है सुप्रीम कोर्ट?
केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि समलैंगिक विवाहों को मान्यता देने वाली संवैधानिक घोषणा इतनी आसान नहीं है. इन शादियों को मान्यता देने के लिए संविधान, IPC, CrPC, CPC और 28 अन्य कानूनों के 158 प्रावधानों में संशोधन करने होंगे.
समलैंगिक विवाह (सेम सेक्स मैरिज) मामले में केंद्र की दलीलों ने सुप्रीम कोर्ट को अपने पहले के रुख से पीछे हटने के लिए सोचने पर मजबूर कर दिया है. केंद्र की दलीलों के चलते अदालत ने केंद्र से पूछा है कि वह समलैंगिक शादी को मान्यता दिए बिना इन जोड़ों को कैसे सुरक्षा और बैंक खातों, बीमा व दाखिलों में सामाजिक लाभ दे सकता है?
दरअसल केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि समलैंगिक विवाहों को मान्यता देने वाली संवैधानिक घोषणा इतनी आसान नहीं है. इन शादियों को मान्यता देने के लिए संविधान, IPC, CrPC, CPC और 28 अन्य कानूनों के 158 प्रावधानों में संशोधन करने होंगे.
संविधान पीठ ने माना है कि केंद्र की इन दलीलों में खासा दम है कि समलैंगिक शादी को मान्यता देने संबंधी कानून पर विचार करने का अधिकार विधायिका का है. लेकिन अदालत ये जानना चाहती है कि सरकार ऐसे जोड़ों की समस्याओं के मानवीय पहलुओं पर क्या कर सकती है?
गुरुवार को हुई छठे दिन की सुनवाई में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कानूनों के प्रावधानों की लिस्ट सामने रखी. उन्होंने अदालत को बताया कि अगर संविधान पीठ समान लिंग विवाहों को मान्यता देते हुए स्पेशल मैरिज एक्ट में 'पुरुष और महिला' के स्थान पर 'व्यक्ति' और पति और पत्नी की जगह जीवनसाथी करता है तो गोद लेने, उत्तराधिकार आदि के कानूनों में भी बदलाव करना होगा.
साथ ही फिर ये मामला पर्सनल लॉ तक जा पहुंचेगा कि इन सभी कानूनों के तहत लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से एक समान लिंग वाले जोड़े में पुरुष और महिला कौन होंगे? फिर गोद लेने, भरण- पोषण, घरेलू हिंसा से सुरक्षा, तलाक आदि के अधिकारों के सवाल भी उठेंगे.
पांच जजों की संविधान पीठ की अगुवाई कर रहे CJI डीवाई चंद्रचूड़ ने माना कि इससे तीन दिक्कतें होंगी-
1. इसमें कानून को पूरी तरह फिर से लिखना शामिल होगा.
2. यह सार्वजनिक नीति के मामलों में हस्तक्षेप के समान होगा.
3. यह पर्सनल लॉ के दायरे में भी हस्तक्षेप करेगा और अदालत स्पेशल मैरिज एक्ट और पर्सनल लॉ के बीच परस्पर क्रिया से बच नहीं सकती है.
तुषार मेहता ने कहा कि एक और दिक्कत है कि अदालत विषमलैंगिक विवाहित जोड़ों और समान-लिंग वाले जोड़ों पर अलग तरह से लागू होने वाला कानून नहीं बना सकती.
केंद्र ने ये भी कहा है कि दुनिया भर में केवल 34 देशों ने समान-लिंग विवाहों को वैध बनाया है. इनमें से 24 देशों ने इसे विधायी प्रक्रिया के माध्यम से, जबकि 9 ने विधायिका और न्यायपालिका की मिश्रित प्रक्रिया के माध्यम से किया. जबकि दक्षिण अफ्रीका अकेला देश है जहां इस प्रकार के विवाहों को न्यायपालिका द्वारा वैध किया गया है.
केंद्र के मुताबिक अमेरिका और ब्राजील प्रमुख देश हैं जहां मिश्रित प्रक्रिया को अपनाया गया था. विधायी प्रक्रिया के माध्यम से समान-लिंग विवाह को वैध बनाने वाले महत्वपूर्ण देश यूके, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, फ्रांस, कनाडा, स्विट्जरलैंड, स्वीडन, स्पेन, नॉर्वे, नीदरलैंड, फिनलैंड, डेनमार्क, क्यूबा और बेल्जियम हैं.
केंद्र ने यह भी कहा है कि 16 देशों ने LGBTQIA+ समुदाय के सदस्यों के बीच सिविल यूनियन को वैध कर दिया है, जिनमें से 13 देशों ने इसे विधायी प्रक्रिया के माध्यम से और तीन ने मिश्रित प्रक्रिया के माध्यम से किया है.
संविधान पीठ के समक्ष केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील दी कि अगर समलैंगिक जोड़ों को कानूनी मान्यता देने की दलील स्वीकार की जाती है तो कल को कोई कौटुम्बिक व्यभिचार के खिलाफ अदालत में यह कहते हुए आ सकता है कि यदि दो वयस्कों ने निषिद्ध यौन संबंध बनाने का फैसला किया है तो राज्य को हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है.
पीठ ने कहा कि जब अदालत 'मान्यता' की बात कहती है तो इसे विवाह के रूप में मान्यता देना, समझने की आवश्यकता नहीं है. इसका मतलब ऐसी मान्यता हो सकती है जो जोड़ों को कुछ लाभों का अधिकार देती है.
दो लोगों के जुड़ाव को शादी से जोड़कर देखने की जरूरत नहीं है. एक बार जब आप कहते हैं कि साथ रहने का अधिकार, एक मौलिक अधिकार है, तो यह राज्य का दायित्व है कि इसके सभी सामाजिक प्रभाव को कानूनी मान्यता प्राप्त है और अदालत शादी में बिल्कुल नहीं जा रही है.
पीठ ने कहा कि अदालत 'जुड़ाव' की व्यापक भावना का कुछ तत्व चाहती है और अदालत इस तथ्य के बारे में भी सचेत है कि देश में 'प्रतिनिधि लोकतंत्र' को इतना कुछ हासिल करना चाहिए. पीठ ने कहा कि बैंकिंग, बीमा, दाखिला आदि जैसी सामाजिक आवश्यकताएं हैं, जहां केंद्र को कुछ करना होगा.
मेहता ने कहा कि सरकार कुछ ऐसे मुद्दों से निपटने पर विचार कर सकती है जो समलैंगिक जोड़ों को कानूनी मान्यता दिए बिना सामना कर रहे हैं.
शीर्ष अदालत ने केंद्र से तीन मई को बताने के लिए कहा है कि समलैंगिक जोड़ों को उनकी वैवाहिक स्थिति की कानूनी मान्यता के बिना क्या सामाजिक लाभ की अनुमति दी जा सकती है. पीठ ने मेहता से कहा कि हम आपकी बात मानते हैं कि अगर हम इस क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो. आपने एक बहुत शक्तिशाली तर्क दिया है और यह संसद के लिए है. यह विधायिका का एक क्षेत्र है.
पीठ ने यह भी जानना चाहा कि सुरक्षा और सामाजिक कल्याण की भावना कैसे पैदा की जाती है और यह भी कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है कि ऐसे संबंध समाज में बहिष्कृत न हों.