Swami Vivekananda पुण्यतिथि: शिकागो में स्वामी विवेकानंद के भाषण के बाद तालियों से गूंज उठा था पूरा हॉल

आज करोड़ों युवाओं के प्रेरणास्त्रोत स्वामी विवेकानंद की पुण्यतिथि है। इनके छोटे से जीवन में उन्होंने देश के लिए कई ऐसे बड़े काम किए जिसे आज भी लोग याद करते हैं। ऐसा ही एक किस्सा शिकागो से जुड़ा हुआ है। दरअसल शिकागो में उन्होंने एक भाषण दिया था जिसको याद करने के बाद आज भी भारतीयों को गौरवान्वित महसूस करते हैं।

Swami Vivekananda पुण्यतिथि: शिकागो में स्वामी विवेकानंद के भाषण के बाद तालियों से गूंज उठा था पूरा हॉल

जब भी स्वामी विवेकानंद की बात होती है, तो उनका साल 1893 में अमेरिका के शिकागो दिए गए भाषण को जरूर याद किया जाता है। दरअसल, उस दौरान स्वामी विवेकानंद के भाषण के बाद पूरा हॉल तालियों की आवाज से गूंज उठा था और आज भी उसे याद करते हुए भारतीयों को गर्व महसूस होता है। इस खबर में हम आपको स्वामी विवेकानंद के उस भाषण के कुछ महत्वपूर्ण अंश के बारे में बताएंगे।

उससे पहले बता दे आज करोड़ों युवाओं के प्रेरणास्त्रोत और आदर्श स्वामी विवेकानंद की पुण्यतिथि है। अपने छोटे से उम्र में ही स्वामी विवेकानंद सन्यासी बन गए थे और उनका झुकाव अध्यात्म की तरफ हो गया। पश्चिमी देशों को योग-वेदांत की शिक्षा से स्वामी विवेकानंद ने ही अवगत कराया था। यहां तक की हिंदू धर्म के प्रचार का भी एक बड़ा श्रेय इन्हीं को जाता है।

स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी, 1863 को कोलकाता में हुआ था। उनके पिता का नाम विश्वनाथ आर माता का नाम भुवनेश्वरी थी। स्वामी विवेकानंद का असली नाम नरेंद्रनाथ दत्त था, जिन्हें लोग नरेन के नाम से भी बुलाते थे। राजस्थान के खेतड़ा के महाराजा अजीत सिंह ने उन्हें 'विवेकानंद' नाम दिया था।

स्वामी विवेकानंद ने 25 साल की आयु में गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया था और पैदल ही पूरे भारत की यात्रा पर निकल गए। इसके बाद 31 मई, 1893 को विवेकानंद मुम्बई से विदेश यात्रा पर निकले और सबसे पहले जापान पहुंचे। जापान में स्वामी विवेकानंद ने नागासाकी, ओसाका और योकोहामा समेत कई कई जगह का दौरा किया।
जापान के बाद चीन और फिर शिकागो पहुंचे थे स्वामी विवेकानंद

जापान के बाद स्वामी विवेकानंद चीन और कनाडा से होते हुए अमेरिका के शिकागो पहुंच गए। यहां उन्होंने 'मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों' के साथ अपना भाषण शुरू किया। इतना बोलते ही पूरा हॉल तालियों की आवाज से गूंज उठा और कई मिनटों तक वहां पर तालियां बजती रह गई थी। 

अमरीकी भाइयों और बहनों,

जिस स्नेह के साथ आपने मेरा स्वागत किया है, उससे मेरा दिल भर आया है। मैं दुनिया की सबसे पुरानी संत परंपरा और सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जातियों, संप्रदायों के लाखों, करोड़ो हिंदुओं की ओर से आपका आभार व्यक्त करता हूं। मैं इस मंच पर बोलने वाले कुछ वक्ताओं का भी धन्यवाद करना चाहता हूं, जिन्होंने बताया कि दुनिया में सहिष्णुता का विचार पूरब के देशों से फैला है।

स्वामी विवेकानंद ने अपने धर्म पर गर्व जताते हुए कहा, "मुझे गर्व है कि मैं उस धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते बल्कि, हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं।"

उन्होंने कहा कि मुझे गर्व है कि मैं उस देश से हूं, जिसने सभी धर्मों और सभी देशों के सताए गए लोगों को अपने यहां शरण दी। स्वामी विवेकानंद ने कहा, "मुझे गर्व है कि हमने अपने दिल में इजरायल के सबसे पवित्र अवशेषों को संजो कर रखा है, जो भारत आए थे और हमारे साथ शरण ली थी। इजरायलियों का पवित्र मंदिर रोमन अत्याचारों द्वारा टुकड़ों में तोड़ दिया गय था। मुझे उस धर्म का होने पर गर्व है, जिसने भव्य पारसी राष्ट्र के अवेशेषों को आश्रय दिया और अभी भी उनका पालन-पोषण कर रहा है। "

विवेकानंद ने अपने बचपन में पढ़ने वाले श्लोक को दोहराते हुए उसका मतलब समझाया। उन्होंने कहा, "मैं इस मौके पर वह श्लोक सुनाना चाहता हूं, जो मैंने बचपन से याद किया और जिसे रोज करोड़ों लोग दोहराते हैं।

।।रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।

इस श्लोक को बोलते हुए स्वामी विवेकानंद ने इसका मतलब बताया कि जिस तरह अलग-अलग जगहों से निकली नदियां, अलग-अलग रास्तों से होकर आखिरकार समुद्र में मिल जाती हैं, ठीक उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा से अलग-अलग रास्ते चुनता है, लेकिन ये रास्ते देखने में भले ही अलग-अलग लगते हैं, पर ये सब ईश्वर तक ही जाते हैं।

स्वामी विवेकानंद ने गीता के एक उपदेश को दोहराया

।। ये यथा मा प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम। मम वत्मार्नुर्वतते मनुष्या: पार्थ सर्वश:।।

इसका मतलब समझाते हुए उन्होंने कहा, "जो भी मुझ तक आता है, किसी भी रूप में, मैं उस तक पहुंचता हूं। सभी मनुष्य उस रास्ते के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जो मुझ तक पहुंचती है।"

सांप्रदायिकता, कट्टरता और इसके भयानक वंशजों के धार्मिक हठ ने लंबे समय से इस खूबसूरत धरती पर कब्जा कर रखा है। उन्होंने इस धरती को हिंसा से भर दिया है, इस बार-बार मानव रक्त से सरोबार किया है। कई सभ्यताओं को नष्ट किया है और कितने देश मिटा दिए गए हैं।

उन्होंने कहा, "यदि ये भयानक राक्षस ने होते, तो मानव समाज की अभी की तुलना में कहीं अधिक विकसित और उन्नत होते, लेकिन उनका समय आ गया है। मुझे उम्मीद है कि इस सम्मेलन की शुरुआत में जो घंटी बजाई गई है, वह सभी कट्टरता की मौत की घंटी हो सकती है, चाहे वह तलवार से हो या फिर कलम से। 

स्वामी विवेकानंद ने कहा, "अगर यहां कोई यह उम्मीद करता है कि यह एकता किसी एक घर्म की विजय और अन्य धर्मों के विनाश से आएगी, तो मैं उससे कहता हूं कि यह आशा एक असंभव आशा है। बीज भूमि में डाला जाता है और उसमें वायु, जल और मिट्टी होती है, तो क्या बीज पानी वायु और मिट्टी बन जाता है, नहीं, वो एक पौधा बन जाता है। वह अपने नियम के मुताबिक ही विकसित होता है। ठीक ऐसा ही धर्म के साथ भी है। हमें ईसाई को हिंदू और हिंदू या बौद्ध को ईसाई नहीं बनाना है, बल्कि दूसरों की भावनाओं को आत्मसात करना होगा और विकास के अपने नियम के अनुसार आगे बढ़वा होगा।"

स्वामी विवेकानंद का भाषण समाप्त होते ही पूरे हॉल में तालियों की आवाज गूंजी थी और आज भी जब उस पल को याद किया जाता है, तो सभी भारतीयों को गर्व महसूस होता है। 11 सितंबर, 1883 का दिन भारत के इतिहास में एक सुनहरा दिन और सुनहरा पल बन गया है। स्वामी विवेकानंद को शिकागो में आयोजित विश्व धर्म परिषद में हिन्दू धर्म व भारतीय संस्कृति का शंखनाद करने के लिए भेजा गया था, जिसमें वो सफल हुए थे।