यूपी में क्या फिर साथ आएंगे अखिलेश यादव-मायावती? बसपा प्रमुख के संकेत, सपा की रणनीति... समझिए सियासत

उत्तर प्रदेश की राजनीति में अखिलेश यादव और मायावती एक साथ आएंगे? यह संभावना जताई जा रही है

यूपी में क्या फिर साथ आएंगे अखिलेश यादव-मायावती? बसपा प्रमुख के संकेत, सपा की रणनीति... समझिए सियासत

उत्तर प्रदेश की राजनीति में अखिलेश यादव और मायावती एक साथ आएंगे? यह संभावना जताई जा रही है। सवाल किए जा रहे हैं और जवाब भी तलाशे जा रहे हैं। पिछले दिनों में जिस प्रकार से अखिलेश यादव और मायावती के बीच बयानों के वाण चले, उसके भीतर की राजनीति को तलाशने की कोशिश की जा रही है। दरअसल, पिछले एक दशक में मायावती की राजनीति की धार कुंद होती दिख रही है। वहीं, अखिलेश यादव मजबूत विपक्ष का विकल्प पेश करते दिख रहे हैं। हालांकि, मायावती और अखिलेश यादव ने एक बार साथ आकर स्थिति को परखा है, लेकिन चीजें बदलती दिख रही हैं। ऐसे में सवाल एक बार फिर यूपी की राजनीतिक फिजां में तैर रहा है। राजनीतिक कयासबाजियां लगातार जारी हैं। वहीं, बसपा प्रमुख मायावती के हालिया बयानों को देखें तो सुर की नरमी को साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है।


भाजपा नेता के बयान से गरमाया माहौल
मथुरा के भाजपा विधायक के बयान ने माहौल को गरमा दिया है। मथुरा की मांट सीट से विधायक राजेश चौहान ने मायावती पर आपत्तिजनक टिप्पणी की थी। इसके खिलाफ अखिलेश यादव ने करारी टिप्पणी की। मायावती ने अखिलेश यादव के बयान पर आभार जताया। इसके बाद अखिलेश यादव का धन्यवाद आया। सोशल मीडिया पर चले इन बयानों ने यूपी की राजनीति को गरमा गया है। हालांकि, मायावती ने सपा-बसपा गठबंधन को लेकर साफ इनकार किया है। उनका कहना है कि अखिलेश के समर्थन का मतलब सपा और कांग्रेस के साथ गठबंधन हो सकता है।


मायावती की ओर से भाजपा विधायक बयान मामले में समर्थन करने के लिए धन्यवाद दिए जाने पर सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने आभार व्यक्त किया। उन्होंने पोस्ट किया कि यह सौहार्द पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक (पीडीए) गठबंधन के लिए एक अच्छा संकेत है। इसे सपा अपना नया समर्थन आधार कह रही है। यह एक प्रभुत्वशाली शासक के विभाजनकारी खेल के खिलाफ है। पीडीए उत्पीड़ित और वंचितों का भविष्य है। हम एकजुट हैं और ऐसे ही रहेंगे।


कांग्रेस-सपा की है अलग चाहत
कांग्रेस और सपा दोनों ही चाहते हैं कि बसपा प्रमुख मायावती अपनी पार्टी बसपा को इंडिया ब्लॉक में शामिल करें। लोकसभा चुनाव से पहले उन्हें मनाने की बहुत कोशिश की गई। सपा नेता का कहना है कि मायावती पहले शामिल होने की उत्सुक नहीं थीं, लेकिन अब उन्होंने देखा है कि भाजपा ने उन्हें कैसे खाली हाथ छोड़ दिया है। इसलिए, उम्मीद है कि वह साथ आएंगी। साथ ही, अगर हम कांग्रेस पर बहुत अधिक निर्भर हैं, तो इससे पार्टी को सीटों के मामले में अधिक सौदेबाजी की शक्ति मिलेगी। आधिकारिक तौर पर मायावती ने इस बात से जोरदार तरीके से इनकार किया है कि अखिलेश का उनके समर्थन का मतलब है कि सपा और कांग्रेस के साथ गठबंधन हो सकता है। उन्होंने उन्हें आरक्षण विरोधी पार्टियां कहा।
हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन के बाद सपा उत्साहित है, जिसने राज्य की 80 में से 37 सीटें जीती हैं। वह भाजपा से अधिक है। अखिलेश ने पहले ही यादवों से आगे बढ़कर पीडीए में अपने जातिगत आधार का विस्तार करने की कोशिश की है। वर्ष 2027 के विधानसभा चुनावों में लड़ाई का मौका देने के लिए दलित वोटों को जोड़ने पर विचार कर रहे हैं। कांग्रेस के साथ गठबंधन के बावजूद दलित वोटों का एक बड़ा हिस्सा मायावती के पक्ष में दिखता है। जाटव वोट बैंक का समर्थन आधार अभी भी काफी हद तक उनके साथ है।


दलित से जुड़ने की कोशिश
समाजवादी पार्टी शासन के दौरान यादव वर्चस्व को दलित समाज ने देखा था। इस कारण दलितों का एक बड़ा वर्ग अखिलेश यादव से जुड़ता नहीं दिख रहा है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान जब अखिलेश यादव और मायावती एक साथ आए तो भी दलितों का यह वोट बैंक उनके साथ नहीं जुड़ा। लोकसभा चुनाव 2024 के दौरान पिछड़ा दलित अल्पसंख्यक यानी पीडीए पॉलिटिक्स के जरिए अखिलेश अछूते वोट बैंक को साधने में सफल रहे हैं। अब वे मायावती का समर्थन कर इस वर्ग के बीच अपनी पकड़ को मजबूत करने का प्रयास करते दिख रहे हैं।अखिलेश यादव पूर्व सीएम मायावती को 'देश की सबसे भ्रष्ट मुख्यमंत्री' कहने वाले भाजपा विधायक पर मानहानि का मुकदमा चलाने की मांग कर वह खुद पर लगे दलित विरोधी टैग को हटाने का एक और प्रयास करते दिख रहे हैं। साथ ही, लोकसभा चुनाव के बाद से सपा ने फैजाबाद के अपने सांसद अवधेश प्रसाद को भी गौरवपूर्ण स्थान दिया है। वह पासी समुदाय के दलित नेता हैं। फैजाबाद (अयोध्या) की सामान्य सीट से जीते अवधेश प्रसाद ने उनकी पार्टी को बहुत फायदा पहुंचाया है।


चुनावों पर नजर
सपा-कांग्रेस के दिमाग में मायावती के समर्थन का एक और कारण 10 विधानसभा सीटों के लिए होने वाला उपचुनाव भी माना जा रहा है। खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पड़ने वाली सीटें महत्वपूर्ण हैं। इन इलाकों में दलित वोट बैंक महत्वपूर्ण है। वहां बसपा की संख्या में भारी कमी आई है। बसपा एक मात्र विधायक तक सीमित रह गई है। इसके बाद भी पार्टी अपने मुख्य मतदाता आधार के साथ चुनाव के परिणाम को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसलिए, बसपा का समर्थन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से महत्वपूर्ण माना जा रहा है। कांग्रेस के एक नेता दावा करते हैं कि बसपा अपने दम पर जीत नहीं सकती है, लेकिन मजबूत प्रदर्शन से भाजपा को मदद मिल सकती है।

गठबंधन का स्वाद नहीं रहा है अच्छा
सपा-बसपा गठबंधन का स्वाद अब तक अच्छा नहीं रहा है। सपा और बसपा ने पहली बार 1993 में गठबंधन किया था और सत्ता हासिल की थी। मुलायम सिंह यादव सीएम बने। बसपा को कार्यकाल के आधे समय में सीएम की कुर्सी देने का वादा किया गया था। दो साल बाद, कुख्यात गेस्ट हाउस कांड हुआ, जिसमें मायावती को बंधक बना लिया गया। कथित तौर पर मुलायम के समर्थकों ने उन पर हमला किया। उस घटना की कड़वाहट ने दोनों दलों को 2019 के लोकसभा चुनावों तक अलग रख। 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा जयंत चौधरी की राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) के साथ एक साथ आए।